Friday, December 30, 2011

अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे) बिन जनलोकपाल-हिन्दी चिंत्तन लेख (janlakpal withought janlokpal-hindi thought article)

         मात्र एक दिन पहले तक अन्ना का जादू खत्म होने का प्रचार करने वाले भौंपू अब अचानक उनको याद कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कि अन्ना बिल लोकपाल सून’। 27 दिसंबर को लोकसभा में लोकपाल बिल पास होने के बाद अन्ना ने 28 को अनशन खत्म कर दिया। आमतौर से हम जैसे समाचार पढ़ाकुओं का यह अनुभव रहा है कि लोकसभा में प्रस्ताव पास होने के बाद उपरी सदन राज्यसभा में भी पास हो जाता है। संभवत अन्ना को भी यही अनुभव याद रहा होगा। मगर यह क्या लोकपाल बिल वहां अटक गया। समाचार विश्लेषण करने वाले अनेक अनुभवहीन बुद्धिजीवी इसे लटकना कह रहे हैं। यह गलत है। संसदीय प्रक्रिया में रुचि रखने वालों के लिये इस तरह का अनुभव कोई नया नहीं है। बजट सत्र में इसके पास होने की संभावना बनी हुई है इसलिये लटकना मानना गलत है। चूंकि देश के राजनीतिक स्वरूप बदलने के बाद यह ऐसी पहली महत्वपूर्ण घटना है इसलिये पुराने पढ़ाकुओं को भी चौंकाती है। एक समय था जब एक ही दल का वर्चस्व दोनों सदनों में रहता था तक इस तरह के विरोधाभास की कल्पना कोई नहीं करता था। अब वह बात नहीं है। इसलिये अनेक पुराने लोग इस तरह के समाचारों के अभ्यस्त नहीं है। शायद 28 दिसम्बर को अन्ना हजारे साहब ने अनशन इसलिये समाप्त कर दिया था कि अब तो बिल पास हो गया है और इसमें आगे अपने अनुरूप सुधार के लिये आंदोलन करेंगे। उनका स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था।
            उनके अनशन से हटते ही यह लगा कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समापन हो गया है। अस्वस्थ अन्ना जब रालेगण सिद्धि से मुंबई आये तो पता चला कि वह एक रात पहले सोये नहीं थे। 27 दिसंबर को भी सोये कि नहीं पर 28 को वापस चले गये। 29 को शायद आराम से सोये होंगे कि 30 की सुबह भाई लोगों ने यह कहते हुए जगा दिया होगा कि ‘‘अभी जागते रहिये लोकपाल के लिये आपकी जरूरत है।’
संसदीय प्रणाली में इस तरह के विधेयक पास होते रहते हैं। अलबत्ता प्रचार माध्यमों के लिये यह विषय अगले कुछ समय तक विज्ञापन चलाने के लिये चर्चित रहेगा। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि संभवत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन किन्ही प्रायोजित लोगों ने अपना इतर लक्ष्य पाने के लिये प्रारंभ करने की योजना बनाई होगी और अन्ना साहब के पुराने सद्कर्मों की वजह से उनको अपना चेहरा प्रदान करने का आग्रह किया होगा। जिस तरह उनका आंदोलन चला और उसे प्रचार माध्यमों में समर्थन मिला उससे यही संदेह होता है। टीवी चैनलों पर अनेक उद्घोषक एक तरह उनके आंदोलन के प्रवक्ता बनकर दूसरे बहसकर्ताओं पर अपना विचार थोपते हैं। समस्त बहसों में बाहर से आये वक्ता कम चैनल के संपादक और उद्घोषक अधिक बोलते हैं। 28 जनवरी को जिस तरह अन्ना हजारे ने अपने साथियों के दबाव में आंदोलन खत्म किया वह उसमें प्रायोजन तत्व होने की पुष्टि भी करता है। अन्ना रालेगण सिद्धि से जब दो दिन पहले निकले थे तब भी स्वस्थ नहीं थे। ऐसे में उनका जिद्द कर आना और फिर अपनी इच्छानुरूप न होने के बावजूद बिल पास होने पर चले जाना इस संदेह को अधिक गहरा बनाता है।
              हम अगर देश के राजस पुरुषों की बात करें तो विश्व में भारत की जिस तरह भ्रष्टाचार की वजह से बदनामी हो रही है तो उसे बचाना भी उनकी जिम्मेदारी है। कहने वाले कुछ भी कहते हों पर इतना तय कि यह बात उनको भी पता है। लोकपाल का बिल सरकार ने पहले तैयार कर संसद में प्रस्तुत किया था। अन्ना हजारे तो बाद में उसे अपने अनुरूप बनाने के लिये मैदान में उतरे थे। यह उनका मौलिक विषय नहीं था पर उन्होंने इसे इतनी तेजी से अपनाया कि राजस पुरुष अचंभित हो गये कि उनका विषय एक समाजसेवी अपहृत कर ले गया। ऐसे में विवाद तो होना ही था।
           अन्ना हजारे की अधिक लोकप्रियता देखते हुए किसी राजस पुरुष ने प्रत्यक्ष छींटाकशी नहीं की पर यह शंका तो होती थी कि समय आने पर वह अपना हिसाब चुकायेंगे। अभी यह कहना कठिन है कि वास्तव में वही हो रहा है जो हम सोचते थे अलबत्ता एक समय राजपुरुषों से दूरी बनाये रखने के इच्छुक अन्ना और उनकी टीम ने आखिर उनको अपने मंच पर चर्चा में आने का आमंत्रण दिया और वह आये भी। ऐसा करके किसने किसका उपयोग किया यह बताना कठिन है पर अप्रैल में अन्ना साहेब के अनशन प्रारंभ होने के पहले ही दिन एक साध्वी तथा एक राजपुरुष को उनके समर्थकों ने जिस ढंग से अपमानित किया था उसे देश के राजसपुरुष भूल पायें यह इतना सरल नहीं था। अंततः अन्ना के सपनों का लोकपाल बनाना उनका ही काम है और उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। बहरहाल प्रचार माध्यमों में अन्ना समर्थक कह रहे हैं कि राज्यसभा में विधेयक रुकने से हमारे आंदोलन को बल मिला है। इसका मतलब यह है कि 27 तारीख को बिल पास होते ही बल निकल गया था। अब यह उनको बल मिला है या दिया गया है आगे अधिक दौड़ लगवाने के लिये, इस पर भी हम जैसे लोग विचार कर सकते हैं। दो तीन जनवरी को अन्ना साहेब के चेले चपाटे फिर रालेगण सिद्धि में पहुंचने वाले हैं। भ्रष्टाचार रोकने के लिये लोकपाल बनना चाहिए और बनाये के प्रयास भी चल रहे है। वैसे कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि अगर वर्तमान व्यवस्था में ही काम किया जाये और इच्छा शक्ति हो तो भ्रष्टाचार कम किया जा सकता है मगर लगता है कि इस लोकतंत्र में जहां जनमानस को व्यस्त रखने के लिये आंदोलन चाहिये तो उन्हें चलाने वाले समाजसेवी भी जरूरी हैं जो प्रायोजन के बिना नहीं चलते।
          अन्ना समर्थक भी एक नया संस्थान बनाने के साथ उसमें आज कार्यरत संस्थाऐं मांग जोड़ने की मांग कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध सजा के प्रावधान भी वही रहेंगे जो पहले से हैं। अलबत्ता बाज़ार और प्रचार समूहों ने इसे बना दिया है अन्ना हजारे का जनलोकपाल जो फिलहाल तो लोकपाल ही है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
poet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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Friday, December 16, 2011

कामयाबी के कायदे-हिन्दी शायारियाँ (kamyabi ke kayde-hindi shayariyan)

हम तय नहीं करेंगे
जमाना तय करेगा कि
ज़िंदा आदमी के इज्ज़त क्या होगी,
मर गया जो
उसको कैसे जन्नत नसीब होगी।
कहें दीपक बापू
देखा है हमने
सयानों को बता रहे हैं
कर्मकांड का योग
अक्ल से पैदल
और शरीर के रोगी।
------------------
हवा के झौंके से काँपने वाले
तूफानों से लड़ने वालों को
रास्ता दिखा रहे हैं,
नाकामी रही जिनकी साथी
कामयाबी के कायदे
लोगों को वही सिखा रहे हैं।
कहें दीपक बापू
दौलत, शौहरत और ताकत पर
इतराते लोग
फरिश्तों की सूची में
अपना नाम लिखा रहे हैं।
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Sunday, December 11, 2011

जैसी नज़र वैसी तस्वीर-हिन्दी शायरी (tasweer or tasvir aur nazar-hindi shayari)


रिश्ते जो दूर हो गये
यादों में धुंधले हो जाते हैं,
उनके साथ गुजरे पल
याद्दाश्त से होते हैं बाहर
मतलब है जिनसे
वही यार ताजगी भर पाते हैं,
कहें दीपक बापू
इस दुनियां में धोखा भी
वफा भी मिल जाती है
मगर लोगों के नजरिये अलग अलग
जिसकी नजर जैसी
वैसी ही तस्वीर वह सामने पाते हैं।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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Friday, November 25, 2011

यह महाशतक गिनती का कौनसा आंकड़ा है-हिन्दी व्यंग्य (wha is meaning of great century or mahashaktak-hindi satire article aur vyangya lekh)

          कल 26 नवंबर है और मुंबई पर दो वर्ष पूर्व हमले की याद या शोक में अनेक शहरों में मोमबत्तियां जलाकर मृतकों के प्रति सहानुभूति की रस्म अदा की जायेगी। अपना अपना तरीका है और उस पर टिप्पणियां करना ठीक नहीं लगता। अमेरिका के न्यूयार्क शहर के विश्व व्यापार केंद्र की इमारतें ढहने के बाद वहां हर वर्ष शून्य तल पर मोमबत्तियां जलाकर शोक मनाया जाता है। उसी की तर्ज पर यहां के आधुनिक लोगों ने इसे प्रारंभ किया है। अब यह पता नहीं कि वह अपने अंदर अमेरिकी जैसे होने का भाव पालकर एक सुखद अनुभूति पालते हैं या फिर अमेरिकियों को यह संदेश भेजते हैं कि देखो हम भी अब तुम्हारी तरह ही हैं। यह भी संभव है कि वहां रह रहे प्रवासियों को भी संदेश भेजते हैं कि हम भी कितने संवेदनशील हैं। संभव है यह तीनों बातें न हों पर इतना तय है कि आधुनिक रूप से शोक मनाना उनके लिये एक फैशन हैं जिसमें संवेदनायें होती नहीं पर दिखाई जाती हैं।
          देखा जाये तो हममारे देश में हमले कई जगह हुए हैं पर बरसी किसी की मनाई नहीं जाती। दरअसल अगर आतंकवादियों ने मुंबई के छत्रपति शिवाजी रेल्वे टर्मिनल पर आक्रमण नहीं किया होता तो शायद हमले के प्रति इतना जनाक्रोश नहीं होता कि पाकिस्तान पर हमले की बात की जाती। दूसरा यह भी कि अगर यह हमला केवल शिवाजी टर्मिनल पर नहीं होता तो भी शायद ही कोई ऐसा शोक दिवस मनाता। आतंकवादियों ने ताज होटल पर हमला किया था जिसमें धनिक लोगों का आना जाना होता है। फिर व्यापारिक रूप से उसकी विश्व में प्रतिष्ठा है। शिवाजी टर्मिनल में मरने वाले आम लोग थे। भले ही वह अमीर हों या गरीब पर ताज में मरने वालों का खास होना वहां जाना ही प्रमाणित करता है। कहने को भले ही इस हमले में शिवाजी टर्मिनल का नाम लें पर सच यह है कि इस शोक दिवस को मनाने की पृष्ठभूमि में ताज होटल पर किया गया हमला है। वह अमेरिका के विश्व व्यापार केंद्र जैसा नहीं है पर अंततः उसका स्वामित्व अंततः भारत के सबसे बड़े औद्योगिक समूह का है और यही उसे विश्व व्यापार केंद्र के समक्ष खड़ा करता है।
      यह सब बाज़ार का खेल है। सौदागरों ने विश्व के अधिकांश आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक संगठनों पर नियंत्रण कर लिया है। संगठनों के मुखिया उनके मुखौटों की तरह हैं। जिन पर प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं है उन पर भी अपने धन और प्रचार की शक्ति भी इस तरह नियंत्रण किये रहते हैं कि उनके सहयोग के बिना मुखिया बेबस होता है। ऐसे में आम आदमी का नाम केवल सहानुभूति के लिये भी तब लिया जाता है जब उसका आर्थिक दोहन किया जा सके।
         वैसे प्रचार माध्यम इस समय व्यापारिक रूप से शोक जता रहे हैं। उनके भगवान का महाशतक पूरा नहीं हो सका। यह महाशतक क्या बला है? एक दिवसीय और पांच दिवसीय मैचों में कुल मिलाकर एक सौ शतक। यह महाशतक गिनती का कौनसा आंकड़ा है पता नहीं! बाज़ार चाहे जो बोले वही ठीक! मुंबई में
         वेस्टइंडीज के साथ बीसीसीआई की टीम का पांच दिवसीय मैच चल रहा था। क्रिकेट का भगवान 94 रन पर है यह हमें भी पता लगा। सारे समाचार चैनल इस खबर को लेकर बैठ गये। उनके पास विज्ञापनों का टाईम पास करने के लिये एक ऐसा मसाला मिल गया जिसे वह छोड़ नहीं सकते। आम आदमी को क्या कहें हम जैसा ज्ञानी ध्यानी भी चैनल बदलकर उस जगह पहुंचा जहां यह मैच दिखाया जा रहा था। भगवान का साथी खेल रहा था। जब हम बैठकर देखने लगे क्योंकि भगवान दूसरे सिरे पर था। हमने देखा है कि क्रिकेट के भगवान को 90 और सौ के बीच खरगोश से कछुआ बन जाता है। फिर भी तय किया कि बाज़ार के इस महानायक का खेल आज देख तो लें भले ही इसमें अब दिलचस्पी न के बराबर रह गयी है। मगर यह क्या खेलने के सिरे पर आते ही क्रिकेट का भगवान आउट हो गया।’
       स्टेडियम में सन्नाटा छाया था तो चैनलों के पास ब्रेकिंग खबर बन गयी थी। तमाम तरह के जुमले ‘पूरा देश हताश हो गया है’, सचिन के प्रशंसक दंग रह गये हैं’, ‘अभी क्रिकेट के भगवान का महाशतक पूरा होने के लिये और इंतजार करना होगा’ और ‘हो सकता है कि एकदिवसीय मैचों में यह महाशतक पूरा हो’।
         हम फिर मैच देखने लगे। मैदान पर हमने यह आवाज सुनी कि ‘वी वांट फालोआन’। पता नहीं यह संदेश वेस्ट इंडीज के खिलाड़ियों के लिये था या बीसीसीआई के कप्तान के लिये जो उस समय खेलने आया था। फालोआन का मतलब यह था कि वेस्टइंडीज की पहली पारी के 590 रन के जवाब में भगवान की टीम 390 पर यानि 200 रन पहले आउट हो जाये तो उसे फालोआन पर अपनी दूसरी पारी इंडीज टीम से की दूसरी पारी ने पहले खेलने को मजबूर किया जाये। देखा जाये तो बीसीसीआई टीम के साथ भारत शब्द जुड़ा है इसलिये भारतीय दर्शकों से ऐसी दर्दनाक दुआ की आशा तो की ही नहीं जा सकती। मगर यह हुआ।
        हालांकि पूरे स्टेडियम में यह आवाज नहीं थी इसलिये सभी दर्शकों पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। मगर यह हुआ। स्पष्टतः बाज़ार ने ऐसे कच्चे संस्कार देश के लोगों में बो दिये हैं कि वह चाहे उसे जब देशभक्ति की तरफ मोड़ ले या व्यक्तिपूजा की तरफ ले जाये। देश से बड़ा क्रिकेट का भगवान हो गया।
         बहरहाल बाज़ार ने क्रिकेट को अपना सबसे बढ़िया सौदा बना लिया है। अभी तक बाज़ार खुशी के माहौल का इंतजार करता था कि उसे ग्राहक मिलेगा पर अब सौदागरों ने अपने प्रचार समूहों की मदद से ऐसे अवसर बना लिये हैं जो उसे खुशी के साथ शोक भी क्रय विक्रय के लिये उपलब्ध कराते हैं। क्रिकेट का भगवान शतक नहीं बना सका इस पर शोक चैनल भुना रहे हैं तो प्रचार प्रबंधक प्रसन्न हो रहे होंगे कि चलो अभी और कमाने का मौका है। जब तक शोक बिकता है बेचते रहेंगे। हो सकता है कि प्रचार प्रबंधक इस बात का अनुमान भी लगा रहे हों कि अगली बार नब्बे के बाद भी यह महाशतक पूरा नहीं हुआ तो शोक बिक पायेगा कि नहीं। एक बार कथित महाशतक पूरा हो गया तो फिर क्रिकेट के भगवान की किस अदा को दिखाकर कमाया जायेगा।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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Tuesday, November 15, 2011

पत्थर और इंसान-हिन्दी शायरी (patthar aur insan-hindi shayari or poem)

पत्थर के देवता
पूजने पर अफसोस नहीं होता,
क्योंकि देवताओं को पूजने वाले इंसान
अब पत्थरों जैसे हो गए,
दौलत, शोहरत और हुकूमत के गुलाम लोग
बुतों की तरह खड़े नज़र आते हैं,
अपनी भलाई और कमाई तक
मतलब रखते
फिर मुंह फेर जाते हैं,
पत्थरों को पूजने का अफसोस नहीं होता
मालूम है कि
उन पर कभी फूल उग नहीं पाते हैं।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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Tuesday, November 08, 2011

हरिद्वार के गायत्री महाकुंभ में हादसाःभारतीय अध्यात्म दर्शन को समझने की आवश्कयता-हिन्दी लेख (trezdy in gayatri mahakumbh and in haridwar and hindi indian religion-hindi lekh or article

              हरिद्वार में आयोजित गायत्री महाकुंभ के दौरान मची भगदड़ में अनेक लोगों की मौत होने का समाचार अत्यंत दुःखदायी है। हम यह कामना करते हैं कि परमात्मा मृतकों के परिवारों को पीड़ा सहने की क्षमता और हताहतों को जल्दी स्वास्थ्य प्रदान करे।
            एक योगसाधक, गीता शिष्य और और अध्यात्मिक लेखक होने के नाते इस घटना पर हमारे लिये लिखना अत्यंत द्वंद्वपूर्ण और पीड़ादायक है। एक तरफ भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का भंडार है तो दूसरी तरफ मासूम और भोले लोगों का अज्ञान जो उन्हें कहीं भी इंसान से भीड़ की भेड़ बना देता है। कभी मानसिक शांति तो कभी अपना सांसरिक कार्य सिद्ध होने की कामना उनको धार्मिक कर्मकांडों की तरफ आकर्षित करती है। जिस कार्य को करना उनके हाथ संभव है उसके लिये कोई याचना नहीं करता पर जिसका आधार कोई अन्य व्यक्ति, समय या स्थितियां हैं वहां हर मनुष्य अनकूल परिणाम के लिये अदृश्य शक्ति की तरफ देखता है। चुप बैठ नहीं सकता तो अपने हाथ से हवन, तंत्र मंत्र या दान अपनी सक्रियता से अपने आपको तसल्ली देता है। ऐसे में बरसों से सक्रिय बाज़ार तंत्र उसके सामने अध्यात्म के नाम पर अपना सौदा बेचता है। जिसे आदमी समझ नहीं पाता। संसार के काम तो बनते बिगड़ते रहते हैं जिसका बन गया वह मुरीद बन गया जिसका नहीं बना वह भगवान की मर्जी मानकर बैठ गया। बहरहाल अध्यात्म के नाम मेले लगते हैं और लोग उसमें शामिल होकर अपने आपको धन्य मानते हैं। सब ठीक रहा तो आयोजकों की वाह वाह और कोई हादसा हुआ तो दुर्भाग्य का दोष दिया जाता है।
           हम यहां गायत्री परिवार के संस्थापक श्रीराम आचार्य की जन्मशती के अवसर आयोजित कार्यक्रम में हुई भगदड़ पर न तो आयोजकों से सवाल करेंगे न ही सरकार या पुलिस पर आक्षेप करेंगे। हम तो यह सीधे भारतीय समाज के महानुभावों को संबोधित कर पूंछेंगे कि क्या वह वास्तव में अध्यात्म और धर्म का मतलब समझते हैं? क्या वह पेशेवर गुरुओं और संस्थाओं के शीर्षपुरुषों की सोच को ही अंतिम मानने की बजाय कभी स्वयं धर्म ग्रंथों की विषय सामग्री पर चिंत्तन और मनन करते हैं?
          सवाल किया है पर जवाब नहीं चाहिए। भारतीय समाज की स्थिति यह है कि उसे अध्यात्म ज्ञान की चर्चा और कर्मकांड के के निर्वहन के लिये एक मध्यस्थ चाहिए। लोग सामान्य सांसरिक विषय पर इस तरह ज्ञान बघारते हैं जैसे कि उनका कोई सानी नहीं है पर जब अध्यात्मिक ज्ञान की बात हो तो कहते हैं कि यह तो सन्यासियों और संतों का विषय है। श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि यज्ञ और हवन केवल प्रथ्वी पर उत्पन्न वस्तुओं से ही नही होता वरन् देह में भी वही पदार्थ हैं और पसीने के माध्यम से उनको बाहर लाना भी यज्ञ सम्पन्न करने जैसी प्रक्रिया है। भगवान श्रीकृष्ण ने प्रायायाम और ध्यान को भी यज्ञ कहा है। प्राणायाम से देह में जो ऊर्जा पैदा होती है वह यज्ञ सामग्री ही है। उस समय गायत्री मंत्र का जाप करने का सीधा मतलब यही है कि हम एक महान अध्यात्मिक यज्ञ कर रहे हैं। योगसाधक इस यज्ञ को प्रतिदिन करते हैं और इसके लिये उनको कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती। दूसरी बात यह है कि अध्यात्मिक कर्म नितांत एकांत में किया जाता है उसके लिये मेले नहीं लगते। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञान यज्ञ को श्रेष्ठ माना है। ज्ञानी लोग प्राणायाम आदि के बाद ध्यान तथा मंत्रजाप वही यज्ञ और हवन काम करते हैं जो सामान्य मनुष्य बाहरी पदार्थों से करते हैं। यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वैसे तो मुझे सारे भक्त प्रिय हैं पर ज्ञानी तो मेरा ही रूप है।
        अध्यात्मिक के नाम पर समय पास करने या मनोरंजन के लिये इस तरह के मेले लगते हैं उसमें शामिल होने वाले लोगों को कितना लाभ होता है इस पर बहस करने की आवश्यकता नहीं है पर इतना तय है कि परेशान हाल लोग कुछ समय के लिये अपने घर से बाहर होकर तनाव रहित होते हैं पर फिर वापसी पर वहीं पुरानी स्थिति हो जाती है। एकांत में योग साधना तथा अध्यात्मिक चिंत्तन करने वाले जहां है वहीं प्रतिदिन स्वयं को नवीनता प्रदान करते हैं। दरअसल इस तरह के मेले लगवाने वाले ज्ञानी नहीं हो सकते। यह एक तरह से अपने धर्म का प्रदर्शन है जिसे राजस या तामस कुछ भी समझा जा सकता है पर सात्विक कतई नहीं कहा जाता। ऐसे में समाज के समझदार लोगों को यह देखना चाहिए कि वह अपने आसपास के लोगों को समझायें कि इस तरह के मेले अध्यात्मिक शांति या मानसिक सुख नहीं दे सकते।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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Monday, October 17, 2011

मंदी और महंगाई का मारा आशिक और सस्ती माशुका-हिन्दी हास्य कविता (mandi aur mehangai ka mara ashik aur sasti mashuka-hindi hasya kavita or hindi comic poem)

आशिक ने कहा माशुका से कहा
‘‘तुम अपनी फरमाईशें कम किया करो
अब बढ़ गयी है मंदी और महंगाई,
एक जगह से क्लर्क पद से छंटनी हुई
दूसरी जगह बन गया हूं चपरासी
घट गयी हैं मेरी कमाई,
इस तरह मेरा कबाड़ा हो जायेगा,
देता हूं तुम्हें ऑटो का जो किराया
पेट्रोल के बढ़ते भाव से
उसका भी महंगा भाड़ा हो जायेगा,
मुझ पर कुछ पर तरस खाओ,
अपने इश्क की फीस तुम घटाओ।’’

सुनकर बिगड़ी माशुका और बोली
‘‘सुनो जरा मेरी बात ध्यान से,
महंगाई शब्द न चिपकाओं मेरे कान से,
देशभक्ति हो या इश्क
जज़्बात बाज़ार में बिकते हैं,
खरीदने का दम हो जिनमें
वहीं सौदा लेकर टिकते हैं,
सौदागरों के भोंपू चीख चीख कर
दिखाते हैं देशभक्ति,
वही गरीब की जिंदगी को सस्ता बनाकर
दिखते हैं अपने पैसे की शक्ति,
उनके कहने पर पर ही
सर्वशक्तिमान की तरफ इशारा करते हुए
आशिक माशुकाओं के इश्क पर लिखते हैं शायर,
जिस्म की चाहत होती मन में
दिखाने के लिये इबादत करते हैं कायर,
आजकल इश्क का मतलब है
माशुकाओं को सामान उपहार में देना,
चाहे पड़े बैंक से पैसा
भारी ब्याज पर उधार में लेना,
अगर तुम्हारी जेब तंग है,
इश्क अगर जारी रहा
मेरी त्वचा पड़ जायेगी फीकी
जिसका अभी गोरा रंग है,
मैं कोई ढूंढ लूंगी
ऊंची कमाई वाला आशिक,
लड़कियों की कमी है
जायेगा जल्दी मेरा इश्क बिक,
यह मंदी और महंगाई वाली
बात न सुनाओ,
ढूंढ लो कोई सस्ती माशुका
मेरे सामने से तुम जाओ।’’
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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Tuesday, October 11, 2011

कद्रदान-हिन्दी शायरी (kadradan-hindi shayari or poem)

उनकी जुदाई के गम में
कभी हमने आँसू नहीं बहाये
भले ही उनको देखने के लिए तरसते रहे,
मगर टूटा आसमान सिर पर
जब पता चला कि
वह दूसरों की बाहों में
बाहर बनकर बरसते रहे।
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खामोशी के बड़ा दोस्त
बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिला,
सच बोले तो लोग बने दुश्मन
झूठ बोले तो हुआ जमाने में गिला।
फिर भी कोई शिकायत नहीं हैं
इस जहाँ में
भला कब किसे
अपनी जुबान से निकले लफ्जों का कद्रदान मिला।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
poet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
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Thursday, September 22, 2011

अपना हौंसला-हिन्दी शायरी (apna honsla-hindi shayari or kavita)

जोश का समंदर दिल में पैदा कर लो।
बहते जाओ नाव की तरह
तेज चलती हवाऐं
उठती हुई ऊंची लहरें
तुम्हें डुबा नहीं सकती
अपने अंदर
मंजिल तक पहुंचने का हौंसला भर लो।
------
टूटे लोग
तुम्हारे हौंसलें को जोड़े
यह मुमकिन नहीं हैं,
अपनी इज्जत को तरसा जमाना
बस जानता है पैसा कमाना,
तुम्हारे काम पर कभी दाद देगा
यह मुमकिन नहीं है।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
poet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
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Sunday, September 11, 2011

हिन्दी के विकास का जिम्मा-हिन्दी दिवस पर कविता (hindi ke vikas ka jimma-hindi diwas or divas par kavita)

हिन्दी के विकास का जिम्मा
अंग्रेजी पसंद लोगों ने ले लिया है,
सारे वर्ष बतियाएंगे अंग्रेजी में
इसलिये एक दिन हिन्दी को दे दिया है।
कहें दीपक बापू
हिन्दी तो गरीबों की भाषा है,
निरीह लोगों की अभिव्यक्ति से ही उसमें आशा है,
अंग्रेजी से लड़ती हिन्दी
गली और मोहल्लों में जिंदा रहेगी,
पीड़ा तभी समझेगा कोई
जब जुबान हिन्दी में कहेगी,
उनसे उम्मीद करना बेकार है
जिन्होंने कार्यक्रम और नाश्तों के बहाने
हिन्दी विकास का जिम्मा ले लिया है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
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Thursday, September 01, 2011

गणेश चतुर्थी-रचनाकारों के लिये प्रेरणास्त्रोत है भगवान श्री गणेश (ganesh chaturthi-rachnakaron ke lile prenastrot hain bhagwan shri ganesh)

          आज पूरे देश में गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जा रहा है। हमारे देश में किसी भी कार्य की संपन्नता के लिये भगवान गणेश जी की आराधना आवश्यक मानी जाती है। दरअसल वह बुद्धि और विवेक प्रदान करने वाले देवता माने जाते हैं।  आज के दिन  देश के लगभग सभी शहरों और गांवों में उनकी जगह जगह मूर्तियों की स्थापना की जाती  है। भगवान श्रीगणेश ही का हमारे जीवन में कितना धार्मिक महत्व यह इसी बात से समझा जा सकता है कि किसी भी शुभ कार्य के प्रारंभ में उनका स्मरण करना ही उसके अच्छी तरह संपन्न होने की संभावना पैदा करता है। इसका कारण उनको भगवान शिव तथा अन्य देवताओं द्वारा दिया गया है वह वरदान है जो उनको अपने बौद्धिक कौशल के कारण मिला था।
         एक समय देवताओं में अपनी श्रेष्ठता को लेकर होड़ लगी थी। श्रेष्ठ देवता के चयन के लिये यह तय किया गया कि जो इस प्रथ्वी का दौरा सबसे पहले कर लौटेगा वही उसका दावेदार होगा। सारे देवतागण उसके लिये दौड़ पड़े मगर श्री गणेश महाराज अपने माता पिता के पास बैठे अपनी लीला करते रहे। जब बाकी देवताओं के वापस लौटने की संभावना देखी तो तत्काल उठे और अपने माता पिता भगवान शिव और पार्वती की प्रदक्षिणा कर घोषणा की कि उन्होंने तो सारी सृष्टि का दौरा कर लिया क्योंकि भगवान शिव और माता पार्वती ही उनके लिये सृष्टि स्वरूप हैं। उनके इस तर्क को स्वीकार किया गया और यह आशीर्वाद दिया गया कि जो मनुष्य किसी भी शुभ कर्म के प्रारंभ में उनकी छबि की स्थापना करेगा उसे उसका अच्छा फल प्राप्त होगा। उसके बाद से उनको शुभफलदायक माना जाने लगा।
मगर उनका यह रूप सकाम भक्तों के लिये ही सर्वोपरि है जबकि निष्काम तथा ज्ञानी भक्त उनको महाभारत ग्रंथ के लेखक के रूप में भी उनकी याद करते हैं जिसमें सम्मिलित श्रीगीता संदेश बाद में भारतीय अध्यात्म का एक महान स्त्रोत बन गया और जिसा आज पूरा विश्व लोहा मानता है। वैसे महाभारत के रचनाकार तो ऋषि वेदव्यास जी है पर उसकी रचना श्री गणेश महाराज की कलम से ही हुई है।
     श्री गणेशजी का चेहरा हाथी का है और सवारी चूहे की है जो कि उनके भक्तों में विनोद का भाव भी पैदा करता है। उनको यह चेहरा उनके पिता भगवान शिव ने ही दिया जिन्होंने क्रोधवश उसे काट दिया था। एक बार माता पार्वती जी नहा रही थी और उन्होंने अपने पुत्र बालक गणेश को यह निर्देश दिया कि वह दरवाजे पर बैठकर पहरा दें और किसी को घर के अंदर न आने दें। आज्ञाकारी बालक गणेश जी वहीं जम गये। थोड़ी देर बात भगवान शिव आये तो श्री गणेश जी ने उनको अंदर जाने से रोका। पिता पुत्र में विवाद हुआ और भगवान शिव ने अपने ही बेटे का सिर अपने फरसे से काट दिया। बाद में उनको पछतावा हुआ और फिर उनको हाथी का सिर लगाकर पुनः जीवन प्रदान किया गया।
         भगवान श्रीगणेश का चरित्र बहुत विशाल है। जब श्री वेदव्यास महाभारत की रचना कर रहे थे तब उन्होंने उसके लेखन के लिये श्रीगणेश जी का स्मरण किया। लिखने के लिये श्रीगणेश जी यह शर्त रखी कि जब तक वेदव्यास की वाणी चलती रहेगी वह लिखते रहेंगे और जब वह रुक जायेगी तो लिखना बंद कर देंगे।
          हमारे अध्यात्म में अनेक भगवान हैं मगर श्री गणेश जी की हस्तलिपि में लिखी गयी श्री मद्भागवत गीता को एक अनुपम ग्रंथ है जिसके कारण सकाम था निष्काम दोनों ही प्रकार के भक्तों में उनको श्रेष्ठ माना जाता है। सकाम भक्ति तथा राजस भाव वाले मनुष्य श्रीमद्भागवत गीता का पूज्यनीय तो मानते हैं पर उसके ज्ञान से यह सोचकर घबड़ाते हैं कि वह उनको सांसरिक कर्म से विरक्त कर देगी। यह उनका वहम है। जबकि इसके विपरीत श्रीमद्भागवत गीता तो निष्काम भक्ति तथा निष्प्रयोजन दया के साथ ही देह, मन और विचारों में शुद्धता लाने का मंत्र बताने वाला एक महान ग्रंथ है और हृदय में पवित्र भाव लाकर उसका अध्ययन करने से जीवन के ऐसे रहस्य हमारे सामने प्रकट हो जाते हैं जो हमारे ज्ञान चक्षु खोल देते हैं। इस संसार वह स्वरूप हमारे सामने आता है जो सामान्य रूप से नहीं दिखता। मूर्तिमान श्रीगणेश जी का वह अमूर्तिमान लेखकीय स्वरूप उन ज्ञानियों को बहुत लुभाता है जो श्री गीता संदेश का महत्व समझते हैं।
गणेश चतुर्थी के अवसर पर हिन्दी ब्लाग जगत के साथी लेखकों और पाठकों को हार्दिक बधाई तथा शुभ कामनायें। ॐ  नमो गणेशायनमः।
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लेखक संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
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Saturday, August 20, 2011

अण्णा हजारे (अन्ना हजारे) के अनशन ने इंटरनेट पर भ्रष्टाचार विरोधी सामग्री की खोज बढ़ाई-हिन्दी लेख (anna hazare ka anshan, internet and search of anti corruption movement word)

        अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जनलोकपाल की स्थापना के अभियान को प्रचार माध्यमों ने देश में चर्चा का विषय बना दिया है। यह तो पता नहीं कि इस आंदोलन की चरम परिणति किस तरह होगी पर इतना तय है कि इससे देश के लोगों पर इतना प्रभाव हुआ है कि इसकी चर्चा हर कहीं चल रही है। टीवी चैनलों पर भारी भरकम पेशेवर विद्वान निरंतर अपने विचार प्रकट कर रहे हैं तो समाचार पत्रों में उनके ही लेख छाये हैं। हमारी दिलचस्पी भी इस आंदोलन के भ्रष्टाचार विरोधी विषय में है पर इतर गतिविधियों पर भी बराबर नज़र रहती है। इसके आधार पर कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार विरोध एक नारा बन गया है जिससे इंटरनेटर पर संभवत सबसे अधिक खोजा जा रहा है। भ्रष्टाचार विरोध शब्द अन्ना हजारे से अधिक सर्च इंजिनों में ढूंढा जा रहा है।
        इसका आभास अपने ब्लाग दीपक बापू कहिन पर लगातार दो दिन एक हजार से अधिक पाठक/पाठ पठन संख्या होने पर हुआ। हालांकि अन्य ब्लाग हिन्दी पत्रिका को भी यह श्रेय हिन्दी दिवस के अवसर पर मिल चुका है। आज भी ऐसा लग रहा है कि दीपक बापू कहिन एक हजार से अधिक का आंकड़ा पार करेगा। ऐसे नहीं है कि भ्रष्टाचार पर लिखी गयी हास्य कवितायें या लेख पहले पाठक नहीं जुटा रहे थे। दरअसल उस समय वह पाठ अन्य शब्दों से सर्च इंजिनों पर पढ़े जा रहे थे। भ्रष्टाचार शब्द से भी पढ़े गये पर उनकी संख्या इतनी नहंी थी जितनी आजकल दिख रही है।
       इसका अभिप्राय यह है कि अन्ना हजारे साहब का अनशन, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग से कहीं न कहीं टीवी चैनलों तथा समाचार पत्रों के अपने विज्ञापन के साथ प्रसारण तथा प्रकाशन के लिये एक महत्वपूर्ण रुचिकर सामग्री मिल रही है। इतना ही नहीं पिछले दिनों ऐसा लग रहा था कि इंटरनेट का प्रभाव कम हो सकता है क्योंकि इस पर परंपरागत प्रचार माध्यमों जैसी सामग्री प्रस्तुत हो रही है। इधर भारत ही नहीं बल्कि इंटरनेट को सामूहिक अभियानों और आंदोलनों के लिये प्रभावी बताकर यह साबित किया जा रहा है कि उससे जुड़ा रहना बेहतर है। लगता है कि कहीं न कहीं टेलीफोन कंपनियां अपने ग्राहक बनाये लगने के लिये ऐसे अभियानों को प्रोत्साहित कर रही हैं। संभव है प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष विनिवेश भी करती हों। तय बात है कि इससे टेलीफोन कंपनियों को ही सहारा मिलना है। पहले ब्लाग, फिर ट्विटर और अब फेसबुक जनचर्चा के लिये महान कार्य करते दिखाये जा रहे हैं। पहले फिल्मी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों तथा अन्य अन्य प्रतिष्ठित लोगों के ब्लाग चर्चित कर इंटरनेट की महिमा बतायी जाती थी आजकल ट्विटर और फेसबुक पर उनके जारी संदेश टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में प्रचारित किये जाते हैं। तय बात है कि किसी खास आदमी की आम बात को जोरदार प्रचार होता है पर आम आदमी की खास बात को भी छोड़ दिया जाता है। अन्ना हजारे के आंदोलन से अंततः कहीं न कहीं आजकल के प्रचार माध्यमों के साथ ही टेलीफोन कंपनियों को भी लाभ हो रहा है। लोगों से एसएमएस भी कराये जा रहे हैं और भावुक लोग ऐसा कर भी रहे हैं। हमें इन चीजों से कोई लेना देना नहीं है पर इतना जरूर कह सकते हैं कि प्रचार माध्यमों के स्वामी इस आंदोलन से लाभ उठा रहे हैं शायद यही कारण है कि इस आंदोलन के विरोधी इससे जुड़े आर्थिक स्तोत्रों पर संदेह करते हैं क्योंकि अंतत उनके माध्यम से एक बहुत बड़ी राशि समाज सेवकों के पास चाहे वह आंदोलनकारी हों या उनके प्रबंधक-जाती है।
            अन्ना साहेब बुजुर्ग हैं और इस गैस विकार पैदा करने वाले मौसम में उनका इस तरह अनशन पर बैठना चिंता का विषय है। एक बात साफ है कि उन्होंने देश के जनमानस को आंदोलित किया है पर भ्रष्टाचार ऐसी बीमारी है जिसका हल लोगों को स्वयं भी ढूंढना चाहिए। भ्रष्टाचार का कारण लालच और लोभ है। एक लालची अधिक चाहता है इसलिये वह दूसरे लालची को इसलिये पैसा देता है ताकि वह उसकी सहायता करे। फिर जिस तरह आज के प्रचार माध्यमों का रवैया है वह उपभोग संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं और खास लोगों की  अभिव्यक्ति को ही आवाज देते हैं और आम आदमी उनके लिये अत्यंत निरीह है। यही कारण है कि हर आम खास बनना चाहता है। इस लोभ के चलते कोई भी किसी मार्ग पर चला जाता है यह जाने कि वह अच्छा है कि नहीं। अपनी जरूरतें बढ़ा दी गयी हैं जिससे लोग धन पाने के अलावा कोई अन्य लक्ष्य जीवन में रखना तो दूर सोचते तक भी नहीं है। दीपक बापू कहिन ही नहीं अन्य ब्लाग पर भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी सामग्री इंटरनेट पर ढूंढती दिखी। तब यह लिखने का विचार आया कि अन्ना हजारे के आंदोलन से ‘भ्रष्टाचार का विषय’ कितना चर्चित हुआ है यह अनुभव पाठकों तथा ब्लाग मित्रों से बांटा जाये। आखिरी बात यह है कि व्यंजना विधा में भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर लिखी गयी हमारी एक कविता का उपयोग कहीं न कहीं अन्ना साहेब के प्रचार में दिखा। व्यंजना विधा में लिखी गयी बात बहुत कम समझ में आती है पर अन्ना साहेब के अंादोलन में विलक्षण प्रतिभाशाली लोग भी हैं यह आज प्रचार माध्यम बता रहे थे। इसका मतलब है कि उनमें से किसी एक ने पढ़ा है और उसका उपयोग अपने ढंग से किया है। यह अलग बात है कि हमें वह कविता पुनः देखने के लिये बीस ब्लागों का अवलोकन करना पड़ेगा। हमने यह कविता तब लिखी थी जब यह अनशन होने की बात भी नहीं थी।
दीपक बापू कहिन में पढ़े गये पाठों का विवरण इस प्रकार है
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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Wednesday, August 10, 2011

नाकामी की सफाई-हिन्दी कविता (nakami ki safai-hindi kavita)

पेट की भूख इंसान को शैतान बना देती है
भूखे की लाचारी गद्दारी का पैगाम थमा देती है।
पेड़ पत्थर और पहाड़ों के देश की भक्ति न सिखाओ,
महंगाई हर शहरी की कमर तोड़कर जमा देती है।
वातानुकूलित कमरों में बैठकर चर्चा आसान है,
ऊबड़ खाबड़ सड़क पर धूप केवल पसीना देती है।
रोते हुए मुद्दों पर मसखरे दे रहे बड़े बड़े बयान
उनकी कुर्सियां ही बैठकर रोटी और दारु कमा देती है।
कहें दीपक बापू, मेहनतकशों के हिमायती बहुत हैं,
भलाई की दलाली उनके बड़े बड़े महल बना देती है।
लुटी भीड़ को देते भाषण वह रौशनदानों से खड़े होकर
सच से छिपने की कोशिश भी उनको वीर बना देती है।
भूख मिटा नहीं सकते, प्यास बुझा नहीं सकते,
नाकामी पर जोरदार सफाई, उन्हें सफल बना देती है।
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Friday, August 05, 2011

दौलत की धारा-हिन्दी शायरी (daulat ki dhara-hindi shayri)

उनकी आँखों में वफा का समंदर
इस कदर बहते देखा है
लगता है कि
सारे जहान के लोगों की प्यास बुझ जाएगी,
जुबान से मीठे शब्दों की लहर
इतनी तेज उठती है
लगता है कि
जमाने भर के लोगों को
गर्मी में भी शीतलता दिलाएगी।
मगर ज़मीन पर कभी
एक बूंद भी वफा की
टपकती नज़र नहीं आती,
गरीब की भूख और प्यास
रोज उम्मीद मे भंवर में फंस जाती,
भले दौलत की हर धारा
जमाने की ठेकेदारों के घर में बहती दिख जाएगी।
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Tuesday, July 26, 2011

बूढ़ा फंसे या जवान-हिन्दी हास्य कविता (boodha fanse ya jawan-hindi hasya kavita)

चेला भागता हुआ गुरु के पास आया
और बोला
‘‘अपने पास यह कैसा धर्म संकट आया है,
अपनी अधिग्रहीत जमीन वापस पाने की चाहत में
एक किसान ने दी है अपने आश्रम में हाजिरी
तो उधर एक उसकी जमीन पर
फ्लेट खरीदने वाले क्लर्क ने
भी आपका दरवाजा खटखटाया है,
आप तो बस, तथास्तु कहकर
छूट जाते हैं
मुझे ही करने पड़ते हैं
आपके आशीर्वाद को सत्य सिद्ध करने का काम,
इससे ही बढ़ता रहा है आपका नाम,
आपको शायद मालुम नहीं
किसान से कम भाव पर खरीदकर
भवन निर्माता को दी गयी,
इधर क्लर्क को घन का सपना दिखाकर
भारी रकम ली गयी,
मामला अब उलझ गया है,
यह मामला एकदम नया है,
किसान चला रहा है
अपने साथियों से मिलकर
जमीन वापस पाने का अभियान,,
इधर क्लर्क भी अपनी बाहें रहा है तान,
इन दोनों के हल कैसे होगा
मेरी समझ में नहीं आया।’’

सुनकर गुरूजी हंसे फिर बोले
‘इसलिये हम गुरु बने रहे
तू रहा पुराना चेला
जबकि तेरे जैसे मेरे पास कई चेले नये हैं,
किसान और क्लर्क ही
अपने पास नहीं आते,
बड़े बड़े दौलतमंद और ओहदेदार
मेरे यहां सिर झुकाते
सभी को देते हम विजयी भव का आशीर्वाद,
जो जीता वह हमारे गुण गाता
जो हारा नहीं रहता उसे कुछ याद,
जिसका काम हो जाये
उस पर हमारी कृपा होने का तुम दावा करना,
जिसका न बने उसका जिम्मा
सर्वशक्तिमान की इच्छा पर धरना,
आपना काम है बस दान और चंदा लेना,
समाज के ग्राहक को चमत्कार के नाम पर
धर्म का धंधा देना,
जाल में बूढ़ा फंसे या जवान,
हमें तो बस है आशीर्वाद देने से काम,
यही मेरे गुरु से मुझे बताया।’’
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Saturday, July 16, 2011

याद्दाश्त असली दुश्मन है-हिन्दी शायरियां yaddashta asli dushman-hindi shayriyan)

हमने उनको भुलाने की
कोशिश बहुत की
पर याद आते हैं
उनके तसल्ली दिलाने वाले वादे
कहते थे
तुम्हारी जिंदगी जन्नत बना देंगे
मगर दे गये जुदाई का गम
दुनियां बना दी
हमारे लिये हर पल की जहन्नुम
-----
किसी की यादों के सहारे
कब तक जिंदा रहते
इसलिये भूलने लगे हैं
अपनी जिंदगी के खुशनुमा पल भी
सुकूल मिला है इतना
लगा है कि इंसान की
असली दुश्मन उसकी याद्दाश्त होती है।


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Thursday, July 07, 2011

सोने के खजाने से बड़ा है आम आदमी का पसीना-हिन्दी लेख (sone ke khazane se bada hai aam admi ka pasina-hindi lekh


  त्रावणकोर के स्वामी पद्मनाभ मंदिर में सोने का खजाना मिलने को अनेक प्रकार की बहस चल रही है।  एक लेखक, एक योग साधक और एक विष्णु भक्त होने के कारण इस खजाने में इस लेखक दिलचस्पी बस इतनी ही है कि संसार इस खजाने के बारे में क्या सोच रहा है? क्या देख रहा है? सबसे बड़ा सवाल इस खजाने का क्या होगा?

          कुछ लोगों को यह लग रहा है कि इस खजाने का प्रचार अधिक नहीं होना चाहिए था क्योंकि अब इसके लुट जाने का डर है।  इतिहासकार अपने अपने ढंग से इतिहास का व्याख्या करते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञानियों का अपना एक अलग नजरिया होता है। दोनों एक नाव पर सवारी नहीं करते भले ही एक घर में रहते हों। इस समय लोग स्विस बैंकों में कथित रूप से भारतीयों के जमा चार लाख करोड़ के काले धन की बात भूल रहे हैं। इसके बारे में कहा जा रहा था कि यह रकम अगर भारत आ जाये तो देश के हालत सुधर जायें।  अब त्रावनकोर के पद्मनाभ मंदिर के खजाने की राशि पांच लाख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है। बहस अब स्विस बैंक से हटकर पद्मनाभ मंदिर में  पहुंच गयी है।
हमारी दिलचस्पी खजाने के संग्रह की प्रक्रिया में थी कि त्रावणकोर के राजाओं ने इतना सोना जुटाया कैसे? इससे पहले इतिहासकारों से यह भी पूछने चाहेंगे कि उनके इस कथन की अब क्या स्थिति है जिसमें वह कहते हैं कि भारत की स्वतंत्रता के समय देश के दो रियासतें सबसे अमीर थी एक हैदराबाद दूसरा ग्वालियर।  कहा जाता है कि उस समय हैदराबाद के निजाम तथा ग्वालियर के सिंधियावंश के पास सबसे अधिक  संपत्ति थी।  त्रावणकोर के राजवंश का नाम नहीं आता पर अब लगता है कि इसकी संभावना अधिक है कि वह सबसे अमीर रहा होगा। मतलब यह कि इतिहास कभी झूठ भी बोल सकता है इसकी संभावना सामने आ रही है। बहरहाल त्रावणकोर के राजवंश विदेशी व्यापार करता था।  बताया जाता है कि इंग्लैंड के राजाओं के महल तक उनका सामान जाता था। हम सब जानते हैं कि केरल प्राकृतिक रूप से संपन्न राज्य रहा है।  फिर त्रावणकोर समुद्र के किनारे बसा है।  इसलिये विश्व में जल और नभ परिवहन के विकास के चलते उसे सबसे पहले लाभ होना ही था।  पूरे देश के लिये विदेशी सामान वहां के बंदरगाह पर आता होगा तो  यहां से जाता भी होगा।  पहले भारत का विश्व से संपर्क थल मार्ग से था। यहां के व्यापारी सामान लेकर मध्य एशिया के मार्ग से जाते थे। तमाम तरह के राजनीतिक और धार्मिक परिवर्तनों के चलते यह मार्ग दुरुह होता गया होगा तो जल मार्ग के साधनों के विकास का उपयोग तो बढ़ना ही था।  भारत में उत्तर और पश्चिम से मध्य एशियाई देशों से हमले हुए पर जल परिवहन के विकास के साथ ही  पश्चिमी देशों से भी लोग आये। पहले पुर्तगाली फिर फ्रांसिसी और फिर अंग्रेज।  ऐसे में भारत के दक्षिणी भाग में भी उथल पुथल हुई।  संभवत अपने काल के  शक्तिशाली और धनी राज्य होने के कारण त्रावनकोर के तत्कालीन राजाओं को विदेशों से संपर्क बढ़ा ही होगा।  खजाने के इतिहास की जो जानकारी आ रही है उसमें विदेशों से सोना उपहार में मिलने की भी चर्चा है।  यह उपहार फोकट में नहीं मिले होंगे।  यकीनन विदेशियों को अनेक प्रकार का लाभ हुआ होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मार्ग से भारत में आना सुविधाजनक रहा होगा।  विदेशियों ने सोना दिया तो उनको क्या मिला होगा? यकीनन भारत की प्रकृतिक संपदा मिली होगी जिसे हम कभी सोने जैसा नहीं मानते। बताया गया है कि त्रावणकोर का राजवंश चाय, कॉफी और काली मिर्च के व्यापार से जुड़ा रहा है।  मतलब यह कि चाय कॉफी और काली मिर्च हमारे लिये सोना नहीं है पर विदेशियों से उसे सोने के बदले लिया।
सोना भारतीयों की कमजोरी रहा है तो भारत की प्राकृतिक और मानव संपदा विदेशियों के लिये बहुत लाभकारी रही है।  केवल त्रावणकोर का राजवंश ही नहीं भारत के अनेक बड़े व्यवसायी उस समय सोना लाते  और भारत की कृषि और हस्तकरघा से जुड़ी सामग्री बाहर ले जाते  थे।
        सोने की खदानों में मजदूर काम करता है तो प्रकृतिक संपदा का दोहन भी मजदूर ही करता है। मतलब पसीना ही सोने का सृजन करता है।
         अपने लेखों में शायद यह पचासवीं बार यह बात दोहरा रहे हैं कि विश्व के भूविशेषज्ञ भारत पर प्रकृति की बहुत कृपा मानते हैं।  यहां भारत का अर्थ व्यापक है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान नेपाल, श्रीलंका,बंग्लादेश और भूटान भी शामिल है।  इस पूरे क्षेत्र को भारतीय उपमहाद्वीप कहा जाता रहा है पर पाकिस्तान से मित्रता की मजबूरी के चलते इसे हम लोग आजकल दक्षिण एशिया कहते हैं। 
         कहा जाता है कि कुछ भारतीय राज्य तो ऐसे भी हुए हैं जिनका तिब्बत तक राज्य फैला हुआ था।  दरअसल उस समय के राजाओं में आत्मविश्वास था और इसका कारण था अपने गुरुओं से मिला  अध्यात्मिक ज्ञान!  वह युद्ध और शांति में अपनी प्रजा का हित ही सोचते थे।  अक्सर अनेक लोग कहते हैं कि केवल अध्यात्मिक ज्ञान में लिप्तता की वजह से यह देश विदेशी आक्राताओं का शिकार बना। यह उनका भ्रम है। दरअसल अध्यात्मिक शिक्षा से अधिक आर्थिक लोभ की वजह से हमें सदैव संकटों का सामना करना पड़ा।  समय के साथ अध्यात्म के नाम पर धार्मिक पांखड और उसकी आड़ में आमजन की भावनाओं से खिलवाड़ का ही यह परिणाम हुआ कि यहां के राजा, जमीदार, और साहुकार उखड़ते गये।
         सोने से न पेट भरता है न प्यास बुझती है।  किसी समय सोने की मुद्रायें प्रचलन में थी पर उससे आवश्यकता की वस्तुऐं खरीदी बेची जाती थी। बाद में अन्य धातुओं की राज मुद्रायें बनी पर उनके पीछे उतने ही मूल्य  के सोने का भंडार रखने का सिद्धांत पालन में लाया जाता था। आधुनिक समय में पत्र मुद्रा प्रचलन में है पर उसके पास सिद्धातं यह बनाया गया कि राज्य जितनी मुद्रा बनाये उतने ही मूल्य का सोना अपने भंडार में रखे।  गड़बड़झाला यही से शुरु हुआ। कुछ देशों ने अपनी पत्र मुद्रा जारी करने के पीछे कुछ प्रतिशत सोना रखना शुरु किया।  पश्चिमी देशों का पता नहीं पर विकासशील देशों के गरीब होने कारण यही है कि जितनी मुद्रा प्रचलन में है उतना सोना नहीं है।  अनेक देशों की सरकारों पर आरोप है कि प्रचलित मुद्रा के पीछे सोने का प्रतिशत शून्य रखे हुए हैं। अगर हमारी मुद्रा के पीछे विकसित देशों की तरह ही अधिक प्रतिशत में सोना हो तो शायद उसका मूल्य विश्व में बहुत अच्छा रहे।
विशेषज्ञ बहुत समय से कहते रहे हैं कि भारतीयों के पास अन्य देशों से अधिक अनुपात में सोना है।  मतलब यह सोना हमारी प्राकृतिक तथा मानव संपदा की वजह से है।  यह देश लुटा है फिर भी यहां इतना सोना कैसे रह जाता है? स्पष्टतः हमारी प्राकृतिक संपदा का दोहन आमजन अपने पसीने से करता है जिससे सोना ही   सोने में बदलता है।  सोना लुटने की घटनायें तो कभी कभार होती होंगी पर आमजन के पसीने से सोना बनाने की पक्रिया कभी थमी नहीं होगी।
भारत में आमजन जानते हैं कि सोना केवल आपातकालीन मुद्रा है।  कुछ लोग कह रहे थे कि स्विस बैंकों से अगर काला धन वापस आ जाये तो देश विकास करेगा मगर उतनी रकम तो हमारे यहां मौजूद है।  अगर ढूंढने निकलें तो सोने के बहुत सारे खजाने सामने आयेंगे पर समस्या यह है कि हमारे यहां प्रबंध कौशल वाले लोग नहीं है।  अगर होते तो ऐसे एक नहीं हजारों खजाने बन जाते। प्रचार माध्यम इस खजाने की चर्चा खूब कर रहे हैं पर आमजन उदासीन है। केवल इसलिये उसे पता है कि इस तरह के खजाने उसके काम नहीं आने वाले। सुनते हैं कि त्रावणकोर के राजवंश ने अपनी प्रजा की विपत्ति में भी इसका उपयोग नहीं किया था।  इसका मतलब है कि उस समय भी वह अपने संघर्ष और परिश्रम से अपने को जिंदा रख सकी थी। बहरहाल यह विषय बौद्धिक विलासिता वाले लोगों के लिये बहुत रुचिकर है तो अध्यात्मिक साधकों के लिये अपना बौद्धिक ज्ञान बघारने का भी आया है।  जिनके सिर पर सोन का ताज था वही कटे जिनके पास खजाने हैं वही लुटे जो अपने पसीने से अपनी रोटी का सोना कमाता है वह हमेशा ही सुरक्षित रहा।  हमारे देश में पहले अमीरी और खजाने भी दिख रहे हैं पर इससे बेपरवाह समाज अधिक है क्योंकि उसके पास सोना के रूप में बस अपना पसीना है।  यह अलग बात है कि उसकी एक रोटी में से आधी छीनकर सोना बनाया जाता है।
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Friday, July 01, 2011

जनसुविधा केंद्र अधिक बनाने की मांग होनी चाहिए-हिन्दी लेख (jansuvidha kendra adhik banane ki mang hona chahie-hindi lekh)

             यह शर्म की बात है कि एक टीवी चैनल ने दिल्ली में फैली गंदगी के नाम पर वहां के निवासियों के यहां वहां पेशाब करने का स्टिंग ऑपरेशन किया। यह दूसरा ऐसा स्टिंग ऑपरेशन हैं जिसमें पिशाब मुद्दा बना है। इससे पहले पुणे के एक टिकिया बेचने का ठेला चलाने वाले का स्टिंग ऑपरेशन प्रस्तुत किया गया था। उसे उस लोटे में पिशाब करते हुए दिखा गया था जिससे वह अपने ग्राहकों को पानी पिलाता था।
              दिल्ली की गंदगी में जनभागीदारी दिखाने के लिये पेशाब करते हुए पकड़े गये लोगों के बयान दिखाये गये। यह दिखाना अनुचित लग रहा था। कुछ सवाल हुए जिनसे क्षोभ हुआ तो हंसी भी आई।
          एक बुजुर्ग से पूछा गया कि ‘आप तो बुजुर्ग हैं फिर ऐसे खुले में पेशाब क्यों करते हैं।’
          हम तो यह कहेंगे कि जितनी उनकी उम्र थी उसे देखते हुए तो यही कम नहीं था कि वह स्वयं पिशाब कर रहे थे। अपने स्वास्थ्य का स्तर अभी भी स्वयं चलने लायक बनाये रखा था। इसके अलावा वह कैमरे के सामने आकर भी अपने हृदय को मजबूत रख सके, यह बात कम प्रशंसनीय है।
         कैमरे के सामने पकड़े गये लोगों का चेहरा भारी तनाव में था। ऐसा तनाव पैदा करना हमारे हिसाब से अपराध है। यह ठीक है कि कहीं खुले में पिशाब करना ठीक नहीं है पर मुश्किल यह है कि देश का विकास बहुत हुआ है और उसने जनसुविधाओं को लील लिया है। उसके अलावा उसने लोगों की सहनशीलता को भी समाप्त कर दिया है। लोगों को अपनी जीवन की हर आवश्यकता पूरी करने के लिये पहले से अधिक दूर जाना पड़ता है। शहर अब बड़े हो गये हैं और रोजगार की स्थितियों में भारी बदलावा आया है। आदमी के पास साइकिल हो या कार या स्कूटर उसकी दैहिक क्रियायें पहले की तरह हैं। आदमी लोहे पर लोहा खरीदता जा रहा है, पत्थर सजा रहा है पर उसकी देह लोहा की नहीं बनी और न दिल पत्थर की तरह मजबूत हो सकता है। दरअसल मलमूत्र के त्याग से मनुष्य शरीर तनाव मुक्त होता है।
                 आदमी का तो ठीक है स्त्रियों के साथ भी समस्या अधिक विकट होती जा रही है। स्त्रियों पहले से अधिक घर से बाहर निकलने लगी हैं। इसका कारण यह है कि कार्यस्थल और घर की दूरियां बढ़ने से वह पुरुषों की घर की जिम्मेदारी में हिस्सा बंटाने के लिये जहां सामान वगैरह खरीदने जाने लगी हैं तो वहीं कमाने के लिये उनको भी अधिक दूरी वैसे ही तय करनी पड़ती है जैसे पुरुष करते हैं। उनके लिये तो वैसे भी जनसुविधा केंद्र कम बने हैं। स्त्रियों के विकास की बात बहुत करने वो हैं पर उनके लिये अधिक से अधिक जनसुविधा केंद्र बनाने की कोई मांग नहंी करतां।
कहने का अभिप्राय यह है कि जो पहले से ही उपलब्ध जनसुविधा केंद्र थे उनकी संख्या कई गुना बढ़ना चाहिए था पर हो उल्टा हो रहा है। अनेक जगह पुराने जनसुविधा केंद्र लापता हो गये हैं और जो नये बने होंगे वह उनसे कम ही होंगे। मुश्किल यह है कि जनता की चिंता करने वाले जितने भी लोग हैं उनके सामने शायद ऐसी समस्यायें नहीं आती इसलिये वह इसकी चिंता नहंी करते। पत्रकारिता करने वालों को भी शायद इसका आभास नहीं है कि सामान्य आदमी के लिये संघर्ष बहुत आसान नहीं है और ऐसे में उसे जनसुविधा केंद्रों अधिक निर्माण होना चाहिए। एक बात तय है कि जो देश की समस्याओं के बारे में सोचते हैं या प्रचार करते हैं उनमें से सभी के पास पेट्रोल चालित वाहन होंगे। पैदल या साइकिल पर शायद कोई चलता होगा इसलिये उनको नहीं पता शरीर के अधिक संचालन से पसीना और पेशाब शरीर से बाहर अधिक निकलता है। इनमें शायद ही किसी ने जिंदगी में ठेला चलाकर देखा होगा। दोष उनका नहीं है। उनके मस्तिष्क तथा हृदय में संवेदनाओं का प्रवाह केवल अपने स्वार्थों तक ही सीमित है। उनका दोष नहीं है इस पूरे समाज की स्थिति यही है। गरीब और मजदूर की उपस्थिति को यहां मनुष्य की तरह देखा ही कहां जाता है?
             अभी तक हम लोग विकास का सपना अमेरिका जैसा देख रहे हैं। पता नहीं वहां जनसुविधा केंद्रों की स्थिति क्या है? अलबत्ता अमेरिका में आबादी कम है फिर वहां के दृश्य हम टीवी या फिल्मों पर देखते हैं उससे तो लगता है कि शायद वहां जनसुविधा केंद्र पर्याप्त मात्रा में होंगे। मगर हमारे देश में विकास उनको लील रहा है।
हमारे एक दोस्त ने हमसे मजेदार बात कही कि ‘‘मैं जब घर से निकालता हूं तो दो चीजें नहीं भूलता। एक तो पानी की बोतल साथ लेना दूसरा निकलने से पहले अपने जलविकार निष्कासित करना। मार्ग में प्यास और पेशाब का संकट अत्यंत तनाव का कारण बनता है।’’
           इधर हम स्वास्थ्य विशेषज्ञों की इस चेतावनी को अनदेखा कर रहे हैं कि हमारे देश में चालीस प्रतिशत से अधिक लोग उच्चरक्तचाप के शिकार हैं और इनमें से कई तो इसे जानते भी नहीं। दरअसल पेशाब उच्च रक्तचाप को कम करता है। फिर पेशाब करते समय जानवर तक को मारना वर्जित है तो फिर इंसान की बात ही क्या? अगर इस तरह आपॅरेशन करते हुए किसी का पेशाब बंद हो गया तो उसके लिये खतरनाक भी हो सकता है। दूसरा यह भी कि शारीरिक श्रम करने पर जहां बाहर पसीना निकलता है वहीं देह को मौजूद जल भी निकासी की तरफ बढ़ता है। यह बात समझना चाहिए। कुछ लोगों को शायद यह अजीब लगे पर हमारा मानना है कि जनसुविधा केंद्र बनाने का अभियान छेड़ना चाहिए।
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Tuesday, June 21, 2011

कोई भेड़िया कोई नाग है-हिन्दी कविता(koyee bhediya koyee naag hai-hindi poem)

चांद पर भी कहीं न कहीं दाग है,
समंदर में भी कहीं न कहीं आग है।
ऊपर और नीचे होता खेल कुदरत का है
इंसान गाता मुख से अपना ही राग है।
शिष्टाचार बैठा है सोने के तख्त पर
सजावट में भ्रष्टाचार का पूरा भाग है।
कहें दीपक बापू दिखते सभी यहां इंसान
पर उनमें भी कोई भेड़िया कोई नाग है।
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Monday, June 13, 2011

बदलाव-हिन्दी शायरी (badlav-hindi shayri)

जमाने को बदल देंगे
यह ख्याल अच्छा है
पर कोई चाबुक नहीं
किसी इंसान के पास
जिससे दूसरे का ख्याल बदल दे।
अमीरी खूंखार ख्याल लाती है,
कहर बरपाने के कदमों में
ताकत का सबूत पाती है,
गरीबी मदद के लिये
भटकाती है इधर से उधर,
दरियादिली के इंतजार में खड़े टूटे घर,
न बदलती किस्मत
न होती हिम्मत
बस उम्मीद जिंदा रहती है कि
शायद कोई हालात बदल दे।
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Saturday, June 04, 2011

बाबा रामदेव के आंदोलन में चंदा लेने के अभियान पर उठेंगे सवाल-हिन्दी लेख (baba ramdev ka andolan aur chanda abhiyan-hindi lekh)

       अंततः बाबा रामदेव के निकटतम चेले ने अपनी हल्केपन का परिचय दे ही दिया जब वह दिल्ली में रामलीला मैदान में चल रहे आंदोलन के लिये पैसा उगाहने का काम करता सबके सामने दिखा। जब वह दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं तो न केवल उनको बल्कि उनके उस चेले को भी केवल आंदोलन के विषयों पर ही ध्यान केंद्रित करते दिखना था। यह चेला उनका पुराना साथी है और कहना चाहिए कि पर्दे के पीछे उसका बहुत बड़ा खेल है।
    उसके पैसे उगाही का कार्यक्रम टीवी पर दिखा। मंच के पीछे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का पोस्टर लटकाकर लाखों रुपये का चंदा देने वालों से पैसा ले रहा था। वह कह रहा था कि ‘हमें और पैसा चाहिए। वैसे जितना मिल गया उतना ही बहुत है। मैं तो यहां आया ही इसलिये था। अब मैं जाकर बाबा से कहता हूं कि आप अपना काम करते रहिये इधर मैं संभाल लूंगा।’’
          आस्थावान लोगों को हिलाने के यह दृश्य बहुत दर्दनाक था। वैसे वह चेला उनके आश्रम का व्यवसायिक कार्यक्रम ही देखता है और इधर दिल्ली में उसके आने से यह बात साफ लगी कि वह यहां भी प्रबंध करने आया है मगर उसके यह पैसा बटोरने का काम कहीं से भी इन हालातों में उपयुक्त नहीं लगता। उसके चेहरे और वाणी से ऐसा लगा कि उसे अभियान के विषयों से कम पैसे उगाहने में अधिक दिलचस्पी है।
            जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्न है तो वह योग शिक्षा के लिये जाने जाते हैं और अब तक उनका चेहरा ही टीवी पर दिखता रहा ठीक था पर जब ऐसे महत्वपूर्ण अभियान चलते हैं कि तब उनके साथ सहयोगियों का दिखना आवश्यक था। ऐसा लगने लगा कि कि बाबा रामदेव ने सारे अभियानों का ठेका अपने चेहरे के साथ ही चलाने का फैसला किया है ताकि उनके सहयोगी आसानी से पैसा बटोर सकें जबकि होना यह चाहिए कि इस समय उनके सहयोगियों को भी उनकी तरह प्रभावी व्यक्तित्व का स्वामी दिखना चाहिए था।
अब इस आंदोलन के दौरान पैसे की आवश्यकता और उसकी वसूली के औचित्य की की बात भी कर लें। बाबा रामदेव ने स्वयं बताया था कि उनको 10 करोड़ भक्तों ने 11 अरब रुपये प्रदान किये हैं। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली आंदोलन में 18 करोड़ रुपये खर्च आयेगा। अगर बाबा रामदेव का अभियान एकदम नया होता या उनका संगठन उसको वहन करने की स्थिति में न होता तब इस तरह चंदा वसूली करना ठीक लगता पर जब बाबा स्वयं ही यह बता चुके है कि उनके पास भक्तों का धन है तब ऐसे समय में यह वसूली उनकी छवि खराब कर सकती है। राजा शांति के समय कर वसूलते हैं पर युद्ध के समय वह अपना पूरा ध्यान उधर ही लगाते हैं। इतने बड़े अभियान के दौरान बाबा रामदेव का एक महत्वपूर्ण और विश्वसीनय सहयोगी अगर आंदोलन छोड़कर चंदा बटोरने चला जाये और वहां चतुर मुनीम की भूमिका करता दिखे तो संभव है कि अनेक लोग अपने मन में संदेह पालने लगें।
            संभव है कि पैसे को लेकर उठ रहे बवाल को थामने के लिये इस तरह का आयोजन किया गया हो जैसे कि विरोधियों को लगे कि भक्त पैसा दे रहे हैं पर इसके आशय उल्टे भी लिये जा सकते हैं। यह चालाकी बाबा रामदेव के अभियान की छवि न खराब कर सकती है बल्कि धन की दृष्टि से कमजोर लोगों का उनसे दूर भी ले जा सकती है जबकि आंदोलनों और अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी ही सफलता दिलाती है। बहरहाल बाबा रामदेव के आंदोलन पर शायद बहुत कुछ लिखना पड़े क्योंकि जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं वह इसके लिये प्रेरित करते हैं। हम न तो आंदोलन के समर्थक हैं न विरोधी पर योग साधक होने के कारण इसमें दिलचस्पी है क्योंकि अंततः बाबा रामदेव का भारतीय अध्यात्म जगत में एक योगी के रूप में दर्ज हो गया है जो माया के बंधन में नहीं बंधते।

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Saturday, May 21, 2011

आम और खास इंसान-हिन्दी व्यंग्य शायरी (aam aur khas insan-hindi vyangya shayari)

कभी आंधी उड़ा जायेगी,
कभी पानी बहा ले जायेगा,
कभी आग जला डालेगी,
आम इंसान सभी का आसान शिकार है
बच जायेगा
तो भी क्या
पता नहीं कब
आम इंसानों की बेईमानी की रीति उसकी
आखिरी उम्मीद भी लूट ले जायेगी।
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वह महल में रहें या जेल में
उनके चर्चे ज़माने में होते रहेंगे,
खास इंसानों का
ईमानदारी से बेईमानी तक का सफर
रंगीनियों से सजा रहता है
उनकी अदाओं को आम इंसान
मुफ्त में ढोते रहेंगे।
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लेखक संपादक-दीपक "भारतदीप", ग्वालियर 
writer and editor-Deepak "Bharatdeep" Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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